“संस्कृतिकरण” (Sanskritikaran) संस्कृत शब्द “संस्कृति” से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है “संस्कृति” या “संस्कार।” इसका मतलब है किसी व्यक्ति, समूह, या समाज के भीतर सांस्कृतिक तत्वों का समावेश या उन्हें एक विशिष्ट संस्कृति के अनुसार ढालना। यह प्रक्रिया व्यक्ति या समाज के मूल्यों, आदतों, और विश्वासों में बदलाव लाती है ताकि वे एक विशिष्ट सांस्कृतिक मानदंडों के अनुरूप बन सकें।
संस्कृतिकरण के विभिन्न रूप हो सकते हैं, जैसे कि धार्मिक, भाषाई, और सामाजिक। यह प्रक्रिया अक्सर तब होती है जब लोग एक नई सांस्कृतिक सेटिंग में आते हैं, जैसे कि अन्य देश में बसने पर, और वहाँ की संस्कृति को अपनाते हैं या उस पर प्रभाव डालते हैं।
संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत कोई निम्न हिन्दू जाति या कोई अन्य जनजाति अथवा समूह किसी उच्च और द्विज जाति की दिशा में अपने रीति-रिवाज कर्मकांड विचारधारा और जीवन पद्धति को बदल लेते हैं।
Sanskritikaran :-
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श्रीनिवास जी लिखते हैं,” संस्कृतिकरण का अर्थ केवल नये रिवाजों व आदतों को ग्रहण करना नही हैं, बल्कि नये विचारों व मूल्यों की भी अभिव्यक्ति करना है, जो कि धार्मिक साहित्य तथा धर्म निरपेक्ष संस्कृत साहित्य के विशाल शरीर में बहुधा अभिव्यक्त हुआ है। कर्म, धर्म, पाप, पुण्य, माया, संसार एवं मोक्ष सामान्य संस्कृतीय धार्मिक विचारों के उदाहरण है और जब कोई समाज संस्कृत बन जाता है, तो यह शब्द उनकी बातचीत में प्रायः दिखायी पड़ते हैं। संस्कृतीय पौरिणिक कथाओं और कहानियों के द्वारा जन-सामान्य तक पहुँचते हैं।”
श्री निवास ने स्पष्ट किया है कि उच्च जाति का अनुसरण करके निम्न जाति अपने सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयत्य करती है और इसी को संस्कृतिकरण कहा जाता हैं।
Sanskritikaran :-
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संस्कृतिकरण की निम्नलिखित विशेषताएं हैं–
संस्कृतिकरण की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं: संस्कृति का शब्दकोश: यह प्रक्रिया किसी विशेष संस्कृति के अंग, भाषा की, रीति- जैसे रीति-रिवाज, परंपरा, और अभ्यास का अन्य व्यक्ति या समूह में निहित है।
इसके दौरान, लोग बार-बार मूल संस्कृति के अवशेषों और मान्यताओं को नए सांस्कृतिक संदर्भ में बदलते या अपने अनुसार अनुकूलित करते हैं।
सांस्कृतिक समायोजन: इस प्रक्रिया में व्यक्ति या समूह को नई सांस्कृतिक दृष्टि से समायोजित किया जाता है, जिससे वे उस समाज में अधिक प्रभावशाली ढंग से दृष्टि कर सकते हैं।
दो-तरफा प्रक्रिया: संस्कृतिकरण आम तौर पर एक दो-तरफा प्रक्रिया होती है, जिसमें दोनों तरफ के निर्माण का सांस्कृतिक प्रभाव होता है।
व्यवहार और व्यवहार में बदलाव: लोग नए सांस्कृतिक वातावरण के अपने दैनिक व्यवहार और व्यवहार को बदल सकते हैं, जैसे कि भोजन, परिधान और संवाद का तरीका।
सामाजिक और आर्थिक कारक: संस्कृतिकरण में सामाजिक और आर्थिक कारकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जैसे कि शिक्षा, व्यापार और रोजगार के अवसर।
सांस्कृतिक पहचान में विकास: इस प्रक्रिया के दौरान, व्यक्ति या समूह अपनी सांस्कृतिक पहचान में वृद्धि या परिवर्तन का अनुभव कर सकते हैं, जिससे वे नई संस्कृति के साथ अधिक सामंजस्य महसूस करते हैं।
संस्कृति का प्रभाव समय के साथ गहरा हो सकता है, और यह व्यक्ति या समूह की सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक अनुभव को बदल सकता है।
Sanskritikaran :-
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के कारण एक जाति अपने को ऊपर की ओर उठाने में सफलता प्राप्त करने का प्रयास करती है। इस प्रकार की गतिशीलता के कारण वह जाति व जनसमूह अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठा सकती है, किन्तु इस प्रकार की गतिशीलता से केवल पदमूलक परिवर्तन हो सकते हैं सामाजिक संरचना में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन इसके कारण नही हो सकता।
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संस्कृतिकरण के प्रकार:-
संस्कृतिकरण के कई प्रकार हैं, जो अलग-अलग संदर्भों और स्थितियों में होते हैं। कुछ प्रमुख प्रकार इस प्रकार हैं:
प्राकृतिक संस्कृतिकरण: यह तब होता है जब विभिन्न सांस्कृतिक समूहों के लोग स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं और एक-दूसरे की संस्कृतियों को अपनाते हैं। कोई बाहरी दबाव नहीं होता है और यह प्रक्रिया धीरे-धीरे होती है।
जबरन संस्कृतिकरण: जब एक समूह अपनी संस्कृति दूसरे समूह पर थोपता है, तो इसे जबरन संस्कृतिकरण कहा जाता है। यह औपनिवेशिक काल, युद्ध या किसी तरह के सामाजिक दबाव के माध्यम से हो सकता है।
स्वैच्छिक संस्कृतिकरण: यह तब होता है जब लोग या समूह स्वेच्छा से किसी अन्य संस्कृति को अपनाते हैं, जैसे कि रोजगार, शिक्षा या व्यक्तिगत रुचि के कारण। इसमें व्यक्तिगत या सामूहिक स्तर पर स्वीकृति और अनुकूलन शामिल है।
प्रभावित संस्कृतिकरण: इसमें सांस्कृतिक तत्वों का हस्तांतरण शामिल है, लेकिन यह किसी विशेष उद्देश्य या परिस्थिति से प्रेरित होता है, जैसे कि व्यापार, प्रवास या सामाजिक आंदोलनों के कारण।
हाइब्रिड अभिसंस्कृति: इस प्रकार में दो या दो से अधिक संस्कृतियों के तत्वों का मिश्रण शामिल होता है, जिससे एक नई सांस्कृतिक पहचान या हाइब्रिड संस्कृति का विकास होता है। यह वैश्वीकरण के युग में विशेष रूप से आम है।
प्रतिसंस्कृति: जब लोग या समूह अपनी मूल संस्कृति को बनाए रखने के प्रयास में किसी अन्य संस्कृति के तत्वों को अस्वीकार या विरोध करते हैं, तो इसे प्रतिसंस्कृति कहते हैं। यह आत्म-संरक्षण और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने की एक प्रक्रिया है।
इन सभी प्रकार की अभिसंस्कृति प्रक्रियाएं किसी व्यक्ति या समाज की सांस्कृतिक पहचान और संरचना को प्रभावित करती हैं, और अक्सर एक दूसरे से जुड़ी या ओवरलैप हो सकती हैं।
संस्कृतिकरण की उपयोगिता
संस्कृतिकरण की उपयोगिता कई क्षेत्रों में देखी जा सकती है, जो व्यक्तिगत, सामाजिक और वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण हैं। यहाँ कुछ प्रमुख उपयोगिताएँ दी गई हैं:
सामाजिक एकीकरण:
संस्कृतिकरण लोगों और समूहों के बीच संवाद, सह-अस्तित्व और समझ को बढ़ावा देता है, जो सामाजिक एकता और शांति को प्रोत्साहित करता है। यह बहु-सांस्कृतिक समाजों में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
आर्थिक विकास:
विभिन्न संस्कृतियों के तत्वों को अपनाने से व्यापार और व्यवसाय के लिए नए अवसर खुल सकते हैं। उदाहरण के लिए, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ विभिन्न बाज़ारों में स्थानीय संस्कृतियों के अनुसार अपने उत्पादों और सेवाओं को अनुकूलित कर सकती हैं।
शैक्षणिक संवर्धन:
शिक्षा के क्षेत्र में, संस्कृतिकरण छात्रों को विभिन्न सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से परिचित कराता है, जिससे उनकी सोच और समझ का विस्तार होता है। यह वैश्विक नागरिकता और सांस्कृतिक साक्षरता को बढ़ावा देता है।
सांस्कृतिक संवर्धन:
संस्कृतिकरण सांस्कृतिक आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करता है, जिससे नई कला, संगीत, साहित्य और सांस्कृतिक प्रथाओं का विकास होता है। यह सांस्कृतिक विविधता को संरक्षित और समृद्ध करने में मदद करता है।
अंतर्राष्ट्रीय संबंध:
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, संस्कृतिकरण देशों और समुदायों के बीच समझ और सहयोग को बढ़ावा देने में मदद करता है। यह सांस्कृतिक कूटनीतिक संबंधों को मजबूत करता है और वैश्विक समस्याओं को सुलझाने में सहयोग को प्रोत्साहित करता है।
व्यक्तिगत विकास:
संक्रांतिकरण व्यक्तिगत स्तर पर भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह लोगों को नए सांस्कृतिक दृष्टिकोणों और अनुभवों से परिचित कराता है। यह आत्म-विकास, सहिष्णुता और विविधता के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ावा देता है।
संस्कृति का संरक्षण और पुनरोद्धार:
संक्रांतिकरण कभी-कभी विलुप्त हो रहे सांस्कृतिक तत्वों को पुनर्जीवित और संरक्षित करने में मदद कर सकता है। यह नई पीढ़ियों को उनकी सांस्कृतिक विरासत के बारे में जागरूक करता है।
संक्रांतिकरण का सही और संवेदनशील उपयोग समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सकारात्मक बदलाव ला सकता है, जिससे व्यक्तियों और समुदायों के बीच अधिक सहिष्णुता, समझ और सहयोग हो सकता है।
आदर्शों का महत्व
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में एक जाति या समूह द्वारा अपसे से उच्च जाति या जनजाति के आदर्शों का अनुकरण किया जाता है। संस्कृतिकरण के परिणामस्वरूप जनजाति हिन्दू जाति होने का दावा कर सकती हैं। किन्तु संस्कृतिकरण की इस प्रक्रिया में जिन आदर्शों का अनुसरण किया जाता है उनमें ब्राह्मण वर्ग के आदर्शों को मुख्य माना गया है, किन्तु डाॅ. श्रीनिवास ने यह मानने का प्रयास किया है कि संस्कृति में ब्राह्मण आदर्श के अतिरिक्त क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के आदर्श तथा प्रभु जातियां भी संस्कृति के आदर्श हो सकते हैं।
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